फ़िल्म : भोंसले
निर्माता : मनोज बाजपेयी, संदीप कपूर
निर्देशक : देबाशीष मखीजा
कलाकार : मनोज बाजपेयी, संतोष जुवेकर, विराट वैभव, इप्शिता, अभिषेक बनर्जी
रेटिंग : तीन
ओटी टी : सोनी लिव

Bhonsle Movie Review

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भोंसले एक 2018 भारतीय हिंदी भाषा की ड्रामा फिल्म है, जो देवाशीष मखीजा द्वारा लिखित और निर्देशित है। फिल्म में मनोज बाजपेयी, जो सह-निर्माता भी हैं, एक सेवानिवृत्त मुंबई पुलिस के शीर्षक भूमिका में हैं, जो एक उत्तर भारतीय लड़की और उसके भाई से दोस्ती करता है, जब स्थानीय राजनेता प्रवासियों से छुटकारा पाने की कोशिश कर रहे हैं। इसका पहला लुक 2018 कान्स फिल्म फेस्टिवल में लॉन्च किया गया था। 

भोंसले का प्रीमियर 2018 बुसान इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के 'ए विंडो ऑन एशियन सिनेमा' सेक्शन में किया गया था और MAMI फिल्म फेस्टिवल, 2018 धर्मशाला इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल, 2019 इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में गैर-प्रतिस्पर्धी इंडिया स्टोरी सेक्शन में भी दिखाया गया था। रॉटरडैम, बेंगलुरु अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव और सिंगापुर दक्षिण एशियाई फिल्म महोत्सव। [2][3][4][5][6][7] [Bengaluru] इसने एशियाई फिल्म महोत्सव बार्सिलोना में सर्वश्रेष्ठ पटकथा और सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार जीता। यह 26 जून, 2020 को सोनी लिव पर जारी किया जाएगा।

Cast

  • Manoj Bajpayee as Ganpath Bhonsle
  • Santosh Juvekar as Vilas
  • Ipshita Chakraborty Singh as Sita
  • Virat Vaibhav as Lalu
  • Abhishek Banerjee aa Rajendra
  • Rajendra Sisadkar as Talpade
  • Kailash Waghmare as Sawant
  • Shrikant Yadav as Mhatre
  • Neetu Pande as Mrs. Jha 

Video: ‘भोंसले’ 

क्या है कहानी : ये कहानी मुंबई की एक चॉल से शुरू होती है. इसमें रहते हैं गणपतराव भोंसले. एक बुजुर्ग पुलिस कॉन्सटेबल जो अब रिटायर हो चुके हैं. फिल्म की कहानी प्रवासी और स्थानीय लोगों के बीच पनपते प्रेम और घृणा की कहानी है। कहानी गणेश चतुर्थी से शुरू होती है, जो कि महाराष्ट्र का सबसे बड़ा त्यौहार है और खत्म भी इसके विसर्जन पर होती है। मसलन 11 दिन की फिल्म है। भोंसले (मनोज बाजपयी) पुलिस में हैं और उनकी नौकरी के आखिरी दिन बचे हैं। वह अपने में रहने वाला आदमी है। दुनियादारी से उसका कुछ लेना देना नहीं है। वह अपनी निराश जिन्दगी में ही खुश हैं। वहीं उसके चौल में एक ड्राईवर रहता है, जिसका नाम विलास (संतोष) है, उसको दुनिया में कुछ बड़ा करना है। इसलिए वह बिहारियों के खिलाफ सबको भड़का रहा है। बिहार मूल निवासी सीता (इप्शिता) वहीं रहती है और उसका भाई लालू (वैभव) भी वहां रहता है। भोंसले से वह अचानक एक रिश्ते से जुड़ जाते हैं। ऐसी परिस्थितियां आती हैं कि सीता को एक बार फिर से अग्नि परीक्षा देना पड़ता है। क्या ऐसे में भोंसले कुछ कदम उठाता है या मूक बना रहता है, यही इस फिल्म का टर्निंग पॉइंट है।
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‘तांडव’ का तांबे. गणपत भोंसले 

‘भोंसले’ को लेकर मन में आने वाले कुछ ऑब्जर्वेशंस यूं हैं –
[1.] आइसोलेशन, निरर्थकता, विखंडन ये इस फिल्म के प्रतिनिधि भाव हैं. एक द्रवित करने वाला भाव इंसानी संभाल, केयर और रिश्तों का भी है.

[2.] फ़िल्म का म्यूजिक सादा और रिफ्रेशिंग है. बहुत ज्यादा इमोशनल ओरिएंटेशन भी नहीं करने की कोशिश करता है. जहां इंसानी भावों को टटोलने का इशारा करना हो, वहां ओरिएंटेशन जैसा कुछ होता है.

[3.] ‘भोंसले’ फिल्म का माहौल छोटी छोटी डीटेल्स से मिलकर बना है. जो इसके भीतर की दुनिया को बनाता है. चाहे वो स्नानघर में रखी साबुन की पतली खुर्चियां हों, रसोई के मुचे हुए बर्तन हों, गैस चूल्हे की जगह कैरोसीन का स्टोव हो या कमरे की पानी टपकती छत हो. भोंसले एक-दो रोटी का आटा ही लगाता है. उसकी दाल में दाना नहीं होता, कोरा पानी होता है. मनोरंजन या सूचना का एक ही साधन है, वो है बरसों पुराना रेडियो जो हमेशा रहता है. यूज़ एंड थ्रो वाले बाजारवादी चलन के उलट. इस दुनिया में खिड़की पर बैठा कौव्वा, कमरे के बाहर बैठा कुत्ता, अहाते की बिल्ली, बहुत सारे चूहे, कॉकरोच, डेंगू के मच्छर, फफूंद और इंसानी शरीर का ट्यूमर सब हैं. सब इस दुनिया को नेचुरल बनाते हैं. अंधेरा, सीलन, घुटन, डर, अदृश्य हिंसा इस फिल्म के बहुत ताकतवर और अल्टीमेट इमोशन हैं.
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फिल्म का माहौल  (फोटोः सोनी लिव)
[4.] गणेश का रेफरेंस फिल्म में मुख्य है. जो हर जगह है. ये कहानी मुंबई के गणेशोत्सव के साथ शुरू होती है और उसी के साथ खत्म. ओपन ही ऐसे होती है कि गणेश की प्रतिमा को निर्मित किया जा रहा है, विसर्जित करने के लिए. ठीक उसके समानांतर भोंसले अपनी पुलिस की ड्यूटी को विसर्जित कर रहा होता है, नए अमूर्त रूप में निर्मित हो जाने के लिए. इसके अलावा जब भोंसले की मेडिकल रिपोर्ट आती हैं तो सिद्धिविनायक नाम की लैब से. अंत में गणेश की टूटी, विक्षत मूर्तियां समंदर के पानी में निढाल होती हैं, और भोंसले अपने आराध्य गणेश की ही हालत में.
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गणेश का संदर्भ. (फोटोः सोनी लिव)
[5.] फिल्मकार मखीजा और उनके राइटर साथी, इंटेंशनली दो समान हालात वाले मराठियों की कहानी कहते चलते है. पहला भोंसले है जो मानवतावादी है. लोकल वर्सेज़ आउटसाइडर यानी स्थानीय-बाहरी के मुद्दे में नहीं पड़ता है. उसने ये हद नहीं बना रखी. दूसरा है विलास जो स्थानीय-बाहरी की बात करके राजनीति में जाना चाहता है. दोनों के पैरेलल चलते हैं. दोनों वैसे ही थापियों से पीटकर कपड़े खुद धोते हैं. मिनिमल सरवाइवल है इनका.

एक सीन में भोंसले सीनियर अधिकारी तावड़े से मिलने जाता है तो हवलदार कहता है कि साब बिजी है अपॉइंटमेंट लेकर आओ. दूसरे में विलास अपने लोकल नेता भाऊ से मिलने जाता है तो उसे भी यही जवाब मिलता है कि वो अभी बिजी हैं कल आना. और दोनों ही अपनी अपनी उन सिचुएशन में एक ही काम करते हैं. वहीं डटे रहते हैं. बाहर ही इंतजार करने लगते हैं.
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विलास और भोंसले. दो मराठी. (फोटोः सोनी लिव)
[6.] मराठी युवक विलास नॉर्थ इंडियन महाराष्ट्रियन लोगों को ‘भय्ये‘ कहकर संबोधित करता है. उन्हें ‘कुत्ते’ कहता है. लोकल लोगों को मराठी गौरव के नाम पर ललचाने, भड़काने की कोशिश करता है. क्योंकि उसे उनसे नफरत है. कहता है – “अपने देश में जाओ”. जैसे कि अब अपने ही देश में दूसरा राज्य, किसी दूसरे देश जैसा हो गया है. जैसे इस ‘पराए’ और ‘बाहरी’ की परिभाषा के सिकुड़ते जाने का कोई अंत ही नहीं. विलास कहता है कि कोई बाहरी यहां गणपति नहीं बैठा सकते, यहां हमारा ही बैठेगा. उसे चुनाव में टिकट देने का लालच भी दूसरे नेता ने दिया है. मराठी मानूस के नाम पर पार्टियां खड़ी करने वाले नेताओं का उदय ऐसे ही हुआ. दूसरे राज्यों के, दूसरे धर्मों के लोगों को पीटकर, उनके खिलाफ दंगे करवाकर और उनका नाम लेकर मराठियों के मन में असुरक्षा पैदा कर करके. विलास एक टैक्सी चलाने वाला युवक है. रहने को घर नहीं, जीवन में कोई संसाधन नहीं. उसे आगे बढ़ना है, कहीं पहुंचना है. उसका भी स्ट्रगल है. और वो ऊपर जाने के लिए ये शॉर्ट कट चुनता है.

[7.] विलास शौच कर रहा होता हो, या पार्टी दफ्तर में खड़ा होकर भाऊ का इंतजार कर रहा होता है तो भाषण की प्रैक्टिस कर रहा होता है. कैसे हाथ ऊपर करके, फटकार देकर लोगों को संबोधित करेगा. कुछ वैसे ही जैसी प्रैक्टिस हिटलर किया करता था और ये बाद में उद्घाटित भी हुआ कि कैसे वो थिएट्रिक्स की प्रैक्टिस करता था. जिस तरह की थिएट्रिक्स बाल ठाकरे करते थे, राज ठाकरे करते रहे. या दूसरे और भी पॉपुलर राइट विंग के लीडर करते हैं.
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विलास. हिटलर. थियेट्रिक्स. (फोटोः सोनी लिव/अन्य)
[8.] ये फिल्म बाहरी के नोशन का तिरस्कार करती है. कि जो पच्चीस तीस बरस से मुंबई में रह रहा है, वो बाहरी कैसे हो गया. भोंसले काका को जितना उनके साथी मराठी लोग नहीं संभालते, उतना सीता और लालू जैसे नॉर्थ इंडियन संभालते हैं.

[9.] कोविड-19 के काल में अब जब सब सो-कॉल्ड ‘भय्ये’ लोग महाराष्ट्र से जा चुके हैं, अपने तथाकथित ‘देश’. तो मराठी मानुसों के उन विभाजनकारी नेताओं को खुशी होनी चाहिए. अब तो मराठी मानूस को काम पर लगना चाहिए. अश्योर करना चाहिए कि इंडस्ट्रीज़ वो संभाल लेंगे. क्योंकि भारत में ये चिंता जताई जा रही है कि अगर यूपी, राजस्थान, बिहार, बंगाल, झारखंड, एमपी, उड़ीसा के मजदूर बड़े शहरों में नहीं लौटे तो मैन्युफैक्चरिंग, कंस्ट्रक्शन, सर्विसेज़ और अन्य प्रमुख इकोनॉमिक सेक्टर रिवाइव नहीं कर पाएंगे और इकॉनमी की रिकवरी नहीं हो पाएगी. स्थानीयता के मुद्दे की बात करने वालों को अब स्थानीय लेबर से इंडस्ट्रीज़ को रिवाइव करके दिखाना चाहिए. अमेरिका में राष्ट्रपति ट्रंप ने दिसंबर तक एच1-बी वर्क वीज़ा जारी करना बंद कर दिया है. क्योंकि नवंबर में राष्ट्रपति चुनाव हैं और इमिग्रेशन को उन्होंने हमेशा मुद्दा बनाया है. ट्रंप ने हमेशा कहा है कि अमेरिका में बेरोज़गारी से लेकर बढ़ते क्राइम के लिए बाहरी लोग जिम्मेदार हैं. उनकी बाहरियों वाली सूची में भारतीय भी आते हैं. मार्च 2021 में खत्म हो रहे करंट फाइनेंशियल ईयर के लिए संभवतः 1.84 लाख एच1-बी वर्क वीजा के लिए भारतीयों ने आवेदन किया था. समझने वाले समझेंगे कि ये बाहरी वाली पॉलिटिक्स एक बहुत बड़ा झूठ है और कहीं नहीं रुकता. दुनिया बनी ही इमिग्रेशन की वजह से है. और आगे भी ये जारी ही रहेगा.


[10.] आखिरी बात. ‘भोंसले’ के किरदार का गैर-इरादतन बदला लेने वाला जो एंगल है वो दिखाता है कि डायरेक्टर मखीजा का बुजुर्ग किरदारों से बदला लिवाने को लेकर कैसा फेसिनेशन है, जुनून है. क्योंकि दो साल पहले आई उनकी फिल्म ‘अज्जी’ में घुटनों के भयंकर दर्द से पीड़ित एक बुजुर्ग दादी अपनी 10 साल की पोती के रेप का बदला लेने निकलती है. अब ‘भोंसले’ में भी किरदार वैसा ही ऐजेड है. सिर्फ इस लिहाज से ‘भोंसले’ देखते हुए मेरे दिमाग में जो फिल्म सबसे पहले उभरी वो थी ‘इन ऑर्डर ऑफ डिसअपीयरेंस‘. 2014 में आई नॉरवेजियन एक्शन थ्रिलर. जिसमें स्टेलन स्कार्सगार्ड जैसे महीन एक्टर ने काम किया था. ये एक ऐसे उम्रदराज पिता की कहानी थी जो अपने बेटे की मौत का बदला हत्यारों से चुनचुनकर निकालता है. ज्यादा कमर्शियल ज़ोन में जाएं तो डेंजल वॉशिंगटन की ‘द इक्वलाइज़र’ सीरीज़ मन में आती है. हालांकि भोंसले कुल मिलाकर इन फिल्मों से काफी अलग है.

क्या है अच्छा : फिल्म का क्लाइमेक्स शानदार और अनिश्चित है, वहीं आपको चौंकाता है और हैरत में डालता है। यह एक साइलेंट हीरो की शानदार कहानी है। किसी को अगर हीरो बनना है और कुछ करना है तो वह किस तरह शांत होकर भी कर जाता है, यह देखना फिल्म में दिलचस्प है।
क्या है कमी : फिल्म जरूरत से ज्यादा धीमी रफ्तार से बढ़ती है। फिल्म की अवधि कम की जा सकती थी। भोंसले की दुनिया और दिनचर्या दिखाने में बेवजह के 25 मिनट बर्बाद कर दिए गये हैं। फिल्म शोर्ट फिल्म के रूप में अधिक प्रभावशाली बनती। इसके साथ ही एक बड़ी शिकायत यह है कि फिल्म में लगातार केवल एंटी बिहारी स्लोगन दिखाए गये हैं। उत्तर प्रदेश का नाम न लेकर भैया कह कर संबोधित किया गया है। स्पष्ट दिख रहा है कि यह किसी विवाद से बचने के लिए किया गया है। चूंकि प्रवासी सिर्फ बिहार से नहीं हैं। उत्तर प्रदेश से भरी संख्या में लोग यहां हैं।
अदाकारी
मनोज बाजपयी के कंधे पर यह फिल्म है। हमेशा की तरह इस फिल्म में भी उन्होंने बेहतरीन अदाकारी की है। उन्होंने कम संवाद कह कर अपने एक्सप्रेशन से कमाल किया है। वह पीड़ा दिखाने में, एकांत जीवन की पीड़ा दिखाने में भी सफल रहे हैं। संतोष ने भी अच्छा काम किया है। इप्शिता ने अच्छा किरदार पकड़ा है। फिल्म के कलाकारों ने बॉडी लैंग्वेज को बखूबी पकड़ा है। विराट वैभव का काम भी काफी अच्छा है।
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